समझेगा कोई संत सुजाण,
कहूँ निर्गुण पद की चरचा।।टेर।।
तीन गुणों से निर्गुण न्यारा,
आदि अंत मध्य के पारा।
नभ से चले शब्द चौधारा,
कहे वेद प्रमाण।
पाया सत् गुरु से परचा।।1।।
समझेगा कोई संत सुजाण,
कहूँ निर्गुण पद की चरचा...
भागा भेद भ्रमना टूटी,
विरह दिवानी गुरुगम ऊठी।
हरिजन चढ़ गये सैन अपूठी,
आ गये जबर आपाण।
सब कटा काल का खरचा।।2।।
समझेगा कोई संत सुजाण,
कहूँ निर्गुण पद की चरचा...
ब्रह्म ज्ञान की लैण लगादी,
छूट गई तन मन की व्याधी।
कर नर कर चाहै योग समाधी,
नर से हो नारायण।
जिसने धर्मार्थ सरचा।।3।।
समझेगा कोई संत सुजाण,
कहूँ निर्गुण पद की चरचा...
पार ब्रह्म की कैसी लीला,
कहां पै सूखा, कहां पै गीला।
‘रामवक्ष’ वो अजब रंगीला,
अनुभव अचल प्रमाण।
जो शस्त्र लगे न करचा।।4।।
समझेगा कोई संत सुजाण,
कहूँ निर्गुण पद की चरचा...