श्लोक - सांगलपति मेरे घट के प्राण,
रोम रोम ठस कर भरा,
अब कबहूँ छोड़ू ना आण।
दर्शन कर प्रसन्न भये,
साहेब सत् बहुरंग।
खींवा कबहूँ न छोड़िये,
सतगुरु जी को संग।।
विद्या चाहते हो सज्जन,
त्यागो अवगुण सात।
आलस चंचल मन गर्व,
मस्ती मान बहु बात।।
मस्ती मान बहु बात,
लोभ सुख इच्छा त्यागो।
सद्गुरू पूरा जोय,
करो ज्ञानी को सागो।।
होट परीक्षा पास,
काज सब का सब सद्या।
बण ‘रामवक्ष’ विद्वान,
पढ़ो जो सारी विद्या।।
भजन - अब सतगुरु कर ले ज्ञानी,
मन की मिटे खेंचा तान।।
सतगुरु ज्ञान लगावे गहरा,
मेटे जन्म मरण का फेरा।
जब दर्शन तेरा,
पीछे पड़े पहचान।
जिन मेटी सर्व गिलानी।।1।।
अब सतगुरु कर ले ज्ञानी,
मन की मिटे खेंचा तान...
आत्म ज्ञान लखे नहीं अंदर,
क्या अंधों को दीखे चंदर।
ज्यों बाजीगर पकड़े बंदर,
वो घाले दूजी बान।
जिन गल में रस्सी बंधानी।।2।।
अब सतगुरु कर ले ज्ञानी,
मन की मिटे खेंचा तान...
कपड़ा रंग लगावे गेरुं,
बहुत मनावे माता भैंरुं।
घर घर फिरे बजावत डेरुं,
यह अनात्म का ढंग जान।
कु कर्म छोड़ तोफानी।।3।।
अब सतगुरु कर ले ज्ञानी,
मन की मिटे खेंचा तान...
सत आत्म पद बिरला पावे,
उलट आप में आप समावे।
मन को मोड़ एक घर लावे,
फिर ‘रामवक्ष’ गल्तान।
जिन पाया है पद निर्वानी।।4।।
अब सतगुरु कर ले ज्ञानी,
मन की मिटे खेंचा तान...
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