तेरा बड़ा अचम्भा,
कुदरत की बलिहार।।टेर।।
पृथ्वी कैसी फर्श बिछाई,
तम्बू ताण दिये असमान।
नक्षण करण योग और तारे,
किस के सहारे अधर विमान।
चंदा सूरज दीपक जोया,
पंखों पवन चले बलवान।
सागर भरे पड़े यहाँ जलके,
कहाँ किनारे वे प्रमाण।
अग्नि गर्म चमक बिजली की,
कड़क अटपटी काँपे जहान।
इंद्र गर्जे जोर शोर से,
ना ना शब्द सुणीजे तान।
अचरज खेल अगोचर लीला,
माया अपरम्पार।।1।।
तेरा बड़ा अचम्भा,
कुदरत की बलिहार...
झीने ते झीना बतलाया,
कीड़ी जैसे सूक्ष्म प्राण।
अजब नमूना लाया कहाँ से,
कहाँ से ठाया यह कमठान।
जलचर भूचर वनचर नभचर,
सब का राजा है इनसान।
महाराजा फिर आप विराजे,
ऋषि मुनी करते है ध्यान।
सब में व्यापक सबसे न्यारा,
क्या तारीफ करुं भगवान।
सुई टिके जितना ना खाली,
हो तुम जगदाधार।।2।।
तेरा बड़ा अचम्भा,
कुदरत की बलिहार...
झाड़ बगीचे बाग लगाये,
पान फूल फल अन्न अहार।
षट् रस भोजन नाना विधि के,
दूध दही घी तेल तैयार।
ऊनी सूती रेशम वस्त्र,
हीरे मोती भरे बजार।
भोग बड़े ऊँचे से ऊँचे,
सुख दुःख कर्मों के अनुसार।
नर नारी मैथुन मय दुनियाँ,
गर्मी सर्दी ऋतु बहार।
बाल जवान वृद्धपन बीते,
पाप पुण्य दो लागे लार।
प्रकट ब्रह्मा विष्णु पोषण,
रुद्र करे संहार।।3।।
तेरा बड़ा अचम्भा,
कुदरत की बलिहार...
क्षण भंगुर तुरंत तन बिनसे,
मूर्ख उलटा रहा लुभाय।
यह संसार मुसाफिर खाना,
कितने आवे कितने जाय।
कितने यहाँ पर अपयश भर गये,
कितने कीर्ति गये कमाय।
कितने नीच नरक में गिर गये,
कितने गये अगम की राय।
कितने भूल रहे यहाँ रस्ता,
इधर उधर में धक्के खाय।
‘रामवक्ष’ ईश्वर भक्ति कर,
वेद संत कहते समझाय।
अर्थ धर्म और काम मुक्ति पद,
मिले पदार्थ चार।।4।।
तेरा बड़ा अचम्भा,
कुदरत की बलिहार...