श्लोक - तप कर सब ब्राह्मण भये,
कहैं अगस्त्य मुनि कुम्भार।
वर्ण शंकर माडव्य ऋषि,
कहै निगम लककार।।

कहै निगम ललकार,
नारद शूद्रि तन जाया।
आ गणिका के गर्भ,
विशष्ठ जो गुरु कहाया।।

कुल हीन भये प्रबीण,
राम को उलटा जप कर।
वाल्मीकी था भील,
व्यास ब्राह्मण भये तपकार।।

भजन - मानुष है सो मानुष है,
हाँ इस में किसकी जाती है।
जिसके चित्त में ऊँच नीच है,
पापी है सो घाती है।।टेर।।

रज बीरज से सबकी काया,
कीड़ी लेकर हाथी है।
मूत्र मेला सबके भेला,
क्या वस्तु छू जाती है।।1।।

मानुष है सो मानुष है...

नर चाहता है नारी प्यारी,
नारी नर को चाहती है।
इस दुनियाँ में दोय किस्म है,
यह कुदरत बतलाती है।।2।।

मानुष है सो मानुष है...

मानुष जाती लम्बी चौड़ी,
इसमें सर्व समाती है।
ऊँच वर्ण में करणी काची,
जब नीची गिर जाती है।।3।।

मानुष है सो मानुष है...

वर्ण व्यवस्था रखी कर्म से,
गीता यूँ फर्माती है।
‘रामवक्ष’ भगवान कही मुख,
भक्त हमारा साथी है।।4।।

मानुष है सो मानुष है...

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