
श्लोक - साधु आवत देखियो रे,
सती निवायो शीश।
साधु मुख से बोलिया रे,
तेरा अमर चूड़ा बक्शीश।।
पति हमारा चल गया,
मैं चलने को तैयार।
साधु तेरे वचन का,
अब क्या होसी हवाल।।
तुलसी मुआ मंगाविया,
मस्तक धरियो हाथ।
मैं कुछ जाणूं नहीं,
तुम जानो रघुनाथ।।
भजन - आत्म ज्ञान भये जिस घट में,
वो निज पद में डट चूका।
आशा तृष्णा मान बड़ाई,
सब झगड़ों से हट चूका।।
जिसको संगत नीच मिली,
वो घटत घटत नर घट चूका।
नाम किया बदनाम जगत में,
तनसे भी वो कट चूका।।1।।
आत्म ज्ञान भये जिस घट में,
वो निज पद में डट चूका...
मानुष तन देवों को दुर्भल,
इसमें आकर शठ चूका।
सत्य धर्म नीति के आगे,
बिल्कुल भी वो नट चुका।।2।।
आत्म ज्ञान भये जिस घट में,
वो निज पद में डट चूका...
जागृत में जागृत भई जगत में,
वो कीरति मुख चढ़ चूका।
नाम अमर कर गये जगत में,
यश का झण्डा फिर चूका।।3।।
आत्म ज्ञान भये जिस घट में,
वो निज पद में डट चूका...
जिसको पद निर्वाण मिला,
सब वर्ण आश्रम मिट चूका।
‘रामवक्ष’ बाँका पद जाँका,
हरिजनों में बँट चूका।।4।।
आत्म ज्ञान भये जिस घट में,
वो निज पद में डट चूका...