श्लोक - राग व द्वेष असीमता,
अविद्या अवनि वेश।
सच्चिदानंद ब्रह्म है,
जीव में पंच क्लेश।।
जीव में पंच क्लेश,
भरे है घट घट नाना।
पार ब्रह्म है एक,
जीव का कहां ठिकाना।।
जगत बीच भटकत फिरे,
ज्यों करकों में काग।
जीव ईश के भेद में,
‘रामवक्ष’ अनुराग।।
भजन - क्या जाने इसे ढपोल रे,
पद पिंगल का बांका है।। टेर।।
घर घर गुरु और घर घर चेला,
गिणती भी गलत पास नहीं धेला।
विद्या हीन गुरु अध गहला,
खुल गई सारी पोल रे।
कायर मन में सांका है।।1।।
क्या जाने इसे ढपोल रे...
ऊटपटांग भजन जो जोड़े,
महा कवियों के पद को दौड़े।
इधर उधर से अक्षर तोड़े,
बिगर अकल के ढोल रे।
कण तज कूक्स फांका है।।2।।
क्या जाने इसे ढपोल रे...
पिंगल बिना कथे जो वाणी,
वो है नीच अकल की हाणी।
तज दे झूंठी खींचा ताणी,
पढ़ व्याकरण पिंगल बोल रे।
गण भर फिर डर कांका है।।3।।
क्या जाने इसे ढपोल रे...
‘रामवक्ष’ पिंगल में बोले,
घट की अनुभव प्रकट खोले।
वर्ण मात्रा सर्व टटोले,
भाषे शब्द अमोल रे।
बारीक बहुत नाका है।।4।।
क्या जाने इसे ढपोल रे...